कहानी और ट्रीटमेंट: रोमांच का वादा, उलझनों का बोझ

हॉल में सबसे तेज तालियाँ तब बजीं जब टाइगर श्रॉफ हवा में उछलकर गुरुत्वाकर्षण को मात देते दिखे। बाकी वक़्त, लोग घड़ी देखते रहे। Baaghi 4 एक बड़े स्केल का एक्शन शोपीस है, मगर उसकी कहानी इतनी परतों में उलझती है कि रोमांच का रस बार-बार टूटता है।

निर्देशक ए. हर्षा इस चौथे भाग में फ्रेंचाइज़ी की तय पहचान—एकल सेना वाला हीरो, धमाकेदार स्टंट, असरदार विलेन—को मनोवैज्ञानिक थ्रिलर के रंग में डुबोते हैं। नायक रॉनी (टाइगर श्रॉफ), नौसेना का अधिकारी, एक हादसे के बाद कोमा से जागता है और एक लड़की अलीशा को देखने-सुनने लगता है जिसे बाकी लोग भ्रम बताते हैं। सवाल उठता है—क्या अलीशा उसकी कल्पना है या कोई बड़ा खेल चल रहा है? फिल्म आधे से ज़्यादा वक्त इसी सवाल को खींचती है।

इंटरवल के आसपास चाको (संजय दत्त) की एंट्री से टोन बदलता है। धमक भरा बैकग्राउंड, सधी हुई चाल और आंखों में ठंडापन—दत्त स्क्रीन पर आते हैं तो फिल्म में वजन महसूस होता है। कहानी ड्रग माफिया, पुराने हिसाब और रॉनी-अलीशा की उलझी कड़ियों को जोड़ने की कोशिश करती है। फ्लैशबैक में दिखता है कि रॉनी एक ऑपरेशन के दौरान किसी गैंगस्टर को पकड़ते वक्त अलीशा से टकराता है—फोन से वार करने जैसी छोटी-सी डिटेल भी आगे चलकर सुराग बनती है।

समस्या यह है कि पहली आधी फिल्म भ्रम की परतों में इतनी देर घूमती रहती है कि दर्शक का धैर्य टूट जाता है। कुछ खुलासे देर से आते हैं, कुछ बिना तैयारी के। जब सच सामने आता है—प्यार, धोखा और बदले की रेखाएं—तो इमोशनल असर उतना तीखा नहीं बैठता, क्योंकि बुनियाद बहुत देर से और बिखरे ढंग से पड़ी है।

रॉनी का भाई (श्रेयस तलपड़े) कहानी में महत्वपूर्ण कड़ी है। उससे जुड़े सीन मनोवैज्ञानिक पहलू को आगे बढ़ाते हैं, मगर हास्य और गंभीरता के बीच का संतुलन अक्सर फिसलता है। साइड कैरेक्टर्स आते-जाते रहते हैं, उनकी मंशा और दायरा साफ नहीं लगता। यही वजह है कि चरित्र-चित्रण गहरा होने के बजाय सतही बना रहता है।

रोमांस ट्रैक पर भी फिल्म असमंजस में है। रॉनी-अलीशा की केमिस्ट्री कुछ दृश्यों में काम करती है, पर बार-बार गानों और स्लो-मोशन पलों से कहानी की रफ्तार रुक जाती है। मनोवैज्ञानिक रहस्य और मेलोड्रामा का यह मिश्रण कागज़ पर रोचक लगता है, स्क्रीन पर यह अक्सर टकराता है।

एक्शन, प्रदर्शन और तकनीक: टाइगर का स्टंट-शो, दत्त का दबदबा

अब जो चीज़ फिल्म को थिएटर तक खींचकर लाती है—एक्शन—वह यहां अपने उच्चतम गियर में है। टाइगर श्रॉफ का शरीर जैसे एक हथियार हो; उनके किक्स, लैंडिंग, फ्री-रनिंग और वायर-वर्क का टेम्पो लगातार ऊंचा बना रहता है। लो-लाइट वेयरहाउस फाइट, भीगे रास्तों में नाइट चेज़, अस्पताल से भागने वाला सीक्वेंस—इन सेट-पीस में कल्पना और क्रूरता दोनों दिखती हैं। स्टंट टीम ने करीब-करीब हर ब्लॉक में नया बीट जोड़ा है, जिससे एक्शन का रिपीटेशन कम महसूस होता है।

टाइगर का एकल ट्रैक रिकॉर्ड साफ है—जब वे बोलते हैं तो औसत, जब कूदते हैं तो धमाल। इस बार भी कुछ शांत दृश्यों में वे कॉम्पोज्ड दिखते हैं, मगर संवादों में वो फ्रैजीलिटी या खुरदरापन नहीं आता जो मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल वाली कहानी मांगती है। इसके बावजूद, भारी-भरकम फाइट्स में उनकी टाइमिंग, फ्लिप्स और कैमरे के साथ सामंजस्य देखने लायक है।

संजय दत्त का चाको दमदार है। यहां ओवर-द-टॉप खलनायक नहीं, बल्कि थका-मगर-खतरनाक डॉन है जो कम शब्द बोलता है पर असर छोड़े बिना नहीं जाता। उनका बारिटोन, धीमी मुस्कान और अचानक फूटता गुस्सा—ये सब किरदार को जीवंत बनाते हैं। जब वे एक्शन ब्लॉक्स में उतरते हैं, तब भी उनका स्क्रीन-प्रेज़ेंस टाइगर के पलड़े को संतुलित कर देता है। खामी बस यह कि चाको की पृष्ठभूमि और मकसद पर फिल्म अधिक रोशनी नहीं डालती, जिससे उनका खौफ सिनेमैटिक रहता है, अंदरूनी नहीं।

हरनाज़ संधू ने सहज एंट्री ली है। कैमरा उन्हें पसंद करता है, और डॉक्टर के रूप में एक शालीन स्क्री़न-पर्सोना बनता है। किरदार की “कई परतें” बार-बार कही जाती हैं, पर स्क्रिप्ट उन परतों को जस्टिफाई करने जितना समय नहीं देती। दो-तीन सीन जहां वे उलझन और दृढ़ता साथ दिखाती हैं, वहां उनकी पकड़ नज़र आती है। आगे के प्रोजेक्ट्स में उन्हें बेहतर लिखे रोल मिलें तो वे बहुत कुछ कर सकती हैं।

सोनम बाजवा का ट्रैक सपोर्टिंग है, पर उद्देश्य धुंधला। कुछ दृश्यों में उनकी मौजूदगी सीन को ग्लैमर देती है, पर कहानी के ढांचे में उनका योगदान सीमित ही दिखता है। श्रेयस तलपड़े हल्की-फुल्की कॉमिक ऊर्जा लाते हैं और एक-दो भावनात्मक पलों में टोन पकड़ते हैं, लेकिन उनका आर्क जल्दबाज़ी में लिखा लगता है।

तकनीकी स्तर पर फिल्म चमकती और चुभती, दोनों है। एक्शन को शूट करने का तरीका—हैंडहेल्ड इम्पैक्ट और वाइड एंगल्स का मेल—फाइट को स्पेस देता है, जिससे शरीरिक भाषा साफ दिखती है। कुछ सीक्वेंस ‘गन-फू’ टेक्सचर की तरफ जाते हैं, तो कहीं ‘देसी मसल-मैडनेस’ है—यह मिश्रण मनोरंजक है। लेकिन एडिटिंग बड़े पैमाने पर असमान है। सीन-टू-सीन ट्रांज़िशन अचानक कटते हैं, मानो अलग फिल्मों के हिस्से जोड़ दिए गए हों। इससे इमोशनल लय टूटती है।

कहानी की सबसे बड़ी कमी—टोनल असंतुलन—तकनीक से नहीं छुपती। बैकग्राउंड स्कोर कई जगह उतना ऊंचा चढ़ता है कि दृश्य की संवेदना दब जाती है। गानों की प्लेसमेंट पहले हाफ में रफ्तार मारती है; रोमांटिक ट्रैक पठारी इलाके जैसा लगता है—न बहुत खराब, न बहुत अच्छा, पर लंबा और सपाट। विजुअल टोन में नीयन-ब्लू और ग्रे का बोलबाला है; यह स्टाइलिश लगता है, पर हर सीन में एक जैसा ट्रीटमेंट कहानी की जरूरतों से टकराता है।

फ्रेंचाइज़ी के संदर्भ में देखें तो पहला भाग सरल-सीधी रेस्क्यू ड्रामा था, दूसरे-तीसरे में स्केल और स्टंट बढ़े। चौथा भाग दांव ऊंचा लगाता है—एक्शन के साथ मनोवैज्ञानिक रहस्य—पर स्क्रिप्ट उस महत्वाकांक्षा का बोझ नहीं उठा पाती। दर्शक अपेक्षा लेकर आते हैं कि रॉनी हर चुनौती को मसल दे; फिल्म बीच-बीच में उसे मानसिक अस्थिरता में बांधती है, पर उस संघर्ष का रिवार्ड बड़ा नहीं बनाती।

लिखावट में दो-तीन जगह सलीकेदार होने की कोशिश दिखती है—एक छोटी-सी प्रॉप जो पहले दिखती है, बाद में क्लू बनती है; एक संवाद जो विलेन की फिलॉसफी खोलता है। मगर इसके बीच लंबे-लंबे दृश्य हैं जो बस जानकारी देते हैं, असर नहीं बनाते। एक्सपोज़िशन को कसने की जरूरत थी।

फिल्म की संरचना पर एक नज़र—पहला हाफ: भ्रम और रोमांस; इंटरवल: विलेन की मजबूत एंट्री; दूसरा हाफ: खुलासे और हैवी एक्शन। आदर्श रूप से दूसरा हाफ पहले का फल होना चाहिए था, यहां वह ज्यादातर नुकसान की भरपाई करता है। इसी वजह से क्लाइमेक्स का धमाका आंखों को भले चकाचौंध करे, दिल पर वैसा असर नहीं छोड़ता।

एक्शन-डिज़ाइन की बात अलग से करनी होगी। कुछ स्टंट ब्लॉक्स में घरेलू लोकेशंस का उपयोग बुद्धिमानी से हुआ है—सीढ़ियों का संकरा स्पेस, कंटेनर-यार्ड की ऊंचाई-गहराई, अस्पताल के कॉरिडोर की भगदड़। प्रैक्टिकल इफेक्ट्स और सीमित वीएफएक्स का यह मिश्रण फाइट को फील देता है। कैमरा कई बार आर-पार जाता है, जिससे कॉम्बैट की कोरियोग्राफी साफ नजर आती है।

अब दर्शकों का अनुभव—सिंगल स्क्रीन में टाइगर के एंट्री-शॉट्स पर सीटियां पक्की हैं, संजय दत्त की आमद पर हूटिंग स्वाभाविक है। मल्टीप्लेक्स ऑडियंस कहानी की विश्वसनीयता और टोन पर सवाल उठाती दिखेगी। परिवारों के लिए हिंसा का स्तर थोड़ा ज्यादा है; कपल ऑडियंस रोमांस में जुड़ाव ढूंढ़ेगी, पर लंबाई और बार-बार रुकी रफ्तार बीच में दीवार खड़ी करती है।

बॉक्स ऑफिस की बात करें तो शुरुआती वीकेंड पर फ्रेंचाइज़ी और टाइगर के एक्शन की पकड़ फिल्म को ओपनिंग दे सकती है। टिकाऊ कमाई वर्ड-ऑफ-माउथ पर निर्भर रहेगी, और यहां मिश्रित प्रतिक्रिया की गुंजाइश ज्यादा है। जिन दर्शकों को कहानी में नई चिंगारी चाहिए, वे निराश हो सकते हैं; जिन्हें बस हाई-ऑक्टेन फाइट्स और स्टार-पावर चाहिए, उन्हें टिकट का पैसा वसूल लग सकता है।

कास्टिंग-डायनेमिक्स में एक खास बात—टाइगर और दत्त का टकराव। उम्र और ऊर्जा का यह कॉन्ट्रास्ट सिनेमा के लिए हमेशा रोचक रहता है। यहां भी कई दृश्यों में यही टकराव दृश्य को ऊपर उठाता है। काश, लेखन इस रिश्ते की जड़ें और गहरी खोदता—दो-तीन प्राइवेट मोमेंट, एक साझा अतीत की परत—तो विलेन-हीरो का समीकरण यादगार बन सकता था।

संवादों पर शिकायत जायज है। कई लाइनें ऐसी लगती हैं जो 90 के दशक की मसाला फिल्मों से उठी हों—बड़े-बड़े दावे, सामान्य क्लिशे। जहां चुभती सच्चाइयां चाहिए थीं, वहां भड़कीले वाक्य आते हैं। कुछ कम, मगर असरदार लाइनें फिल्म को ज्यादा इंसानी बना सकती थीं।

साउंड-डिज़ाइन में पंच है—घूंसे की आवाज़, टूटती चीज़ों का क्रंच, गोली की सीटी—ये सब थिएट्रिकल अनुभव बेहतर बनाते हैं। बैकग्राउंड स्कोर अगर थोड़ी सूझ-बूझ से इस्तेमाल होता, तो यही पंच इमोशन को भी ताकत देता। अभी वह कई बार दृश्य पर हावी होकर उसकी बारीकी खा जाता है।

कहानी की नींव—भ्रम बनाम हकीकत—दिलचस्प हो सकती थी। लड़ाई सिर्फ बाहरी नहीं, अंदर की भी—यह आयाम बड़े एक्शन कैनवास में कम ही आज़माया जाता है। फिल्म कोशिश करती है, पर जरूरी होमवर्क अधूरा छोड़ देती है। भ्रम की दुनिया के नियम क्या हैं? ट्रिगर क्या हैं? भरोसा किस पर करें? यह सब जितना साफ होता, रॉनी के संघर्ष में उतना डूब पाते।

गीत-संगीत पर लौटें। एक-दो ट्रैक अलग से सुनने पर ठीकठाक लगेंगे, पर फिल्म में उनकी पोज़िशन कहानी की सांस रोक देती है। रोमांटिक गाना जहां आता है, वहां दृश्य का अर्थ बढ़ाने के बजाय वह लय तोड़ देता है। एक पार्टी/डांस नंबर ग्लैमर देता है, मगर उसके बाद फिर से प्लॉट को पटरी पर लाने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है।

कुल मिलाकर, यह एक ऐसी फिल्म है जो अपने एक्शन से थिएटर को जीवंत रखती है और अपनी कहानी से उसे बार-बार शांत कर देती है। टाइगर श्रॉफ अपने स्पेस में अजेय हैं; संजय दत्त की स्क्रीन-कमांड अद्भुत है; हरनाज़ संधू भरोसा जगाती हैं। पर जब लाइट्स ऑन होती हैं, दिमाग में सबसे पहले स्टंट याद आते हैं, किरदार और उनकी तकलीफें नहीं। एक बेहतर लिखी स्क्रिप्ट इस टीम से कहीं मजबूत फिल्म निकाल सकती थी।

  • क्या काम करता है: टाइगर की फिजिकलिटी और सेट-पीस, संजय दत्त का ठंडा खतरापन, साउंड का इम्पैक्ट, कुछ समझदार विजुअल आइडियाज।
  • क्या नहीं करता: खिंचा हुआ पहला हाफ, भ्रम वाली ट्रैक की लंबाई, बिखरी एडिटिंग, सतही चरित्र-चित्रण, गानों की गलत प्लेसमेंट।

अगर आप शो-डोंट-टेल वाले एंटरटेनमेंट के पक्षधर हैं, तो एक्शन ब्लॉक्स आपका समय वसूल कराएंगे। अगर आप कहानी से निवेश की उम्मीद रखते हैं, तो धैर्य रखना पड़ेगा। यही इस Baaghi 4 Review का सार है—मसल्स फर्स्ट, माइंड लेटर।

Subhranshu Panda

मैं एक पेशेवर पत्रकार हूँ और मेरा मुख्य फोकस भारत की दैनिक समाचारों पर है। मुझे समाज और राजनीति से जुड़े विषयों पर लिखना बहुत पसंद है।